अगरबत्ती क्यों नहीं जलानी चाहिए

 सनातन धर्म में अगरबत्ती जलाना वर्जित क्यों है-

यद्यपि हमारा भारतवर्ष अगरबत्ती उत्पादन और निर्यात में प्रथम स्थान रखता है फिर भी हमसे कहा जाता है कि अगरबत्ती नहीं जलानी चाहिए। आखिर क्यों..

 सनातन हिंदू धर्म में अगरबत्ती जलाना वर्जित करने का मुख्य उद्देश्य इसमें प्रयुक्त होने वाली बांस है। जिसे विभिन्न पक्षों द्वारा समझा जा सकता है 

 पहला पक्ष- हिंदू धर्म में बांस को एक पवित्र वृक्ष माना गया है। किसी भी पूजन के लिए हमें मंडप सजाना हो या फिर अखंड रामायण, श्रीमद्भागवत पुराण, सत्यनारायण कथा अथवा देवी भागवत पाठ इत्यादि जैसे विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान, सभी में बांस के ऊपर पताके लगाकर ही हनुमान जी की पूजा का विधान हैं। जिस हेतु बांस को नहीं जलाते।

    दूसरा पक्ष- बांस के एक पौधे से ही ढेर सारी कलिया  अंकुरित होती बढ़ती और वृक्ष का रूप लेती हैं। जोकि वंश वृद्धि के प्रतीक माने जाते हैं यही कारण है कि जब शिशु का जन्म होता है तो शिशु के कटे हुए नाल को बांस के पौधों के बीच में गाड़ दिया जाता है। जिसका भाव यह होता है कि बांस की तरह उनका वंश भी सदैव बढ़ता रहे।

    तीसरा पक्ष- धार्मिक मान्यता के अनुसार बांस की तीली लगी हुई अगरबत्ती जलाने से पितृ दोष होता है जिससे परिवार में वंश वृद्धि रुक जाती है और तरह तरह के कष्ट एवं परेशानियों से इंसान को गुजरना पड़ता है।

    चौथा पक्ष- वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार बांस में लेड एवं हेवी मेटल अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है जिसे जलाने पर लेड ऑक्साइड बनता है। जो बहुत ही हानिकारक न्यूरोटॉक्सिक है। बांस में पाई जाने वाली हेवी मेटल को जलाने पर ऑक्साइड बनता है। जो हमारे स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही हानिकारक है।

    पांचवा पक्ष- अगरबत्ती में सुगंध के प्रसार के लिए उसमें फेथलेट नाम के रसायन का प्रयोग किया जाता है। जो श्वांस के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश करता है यानि के श्वांस के माध्यम से सुगंध के रूप में हमारे शरीर में पहुंचने वाली यह न्यूरोटॉक्सिक एवं हेप्टोटॉक्सिक हमें कैंसर, मस्तिष्क आघात अस्थमा एवं लीवर डैमेज का कारण बनती है।

 छठवां पक्ष- सनातन धार्मिक ग्रंथ एवं पूजन विधान में सर्वत्र धूपं आघ्राप्यामि की बात कही गई है। नाकि अगरबत्ती जलाने की। जो कि विभिन्न हानिकारक रसायनों से युक्त होती है।

 सातवां पक्ष- हिन्दु धार्मिक अनुष्ठानों में किसी भी तरह के हवन अथवा यज्ञ में बांस की लकड़ी अथवा समिधा का उपयोग नहीं करते। यहां तक की किसी की मृत्यु हो जाने पर बांस की बनी अर्थी को भी हम चिता में भी नहीं डालते जो इस बात का परिचायक है कि बांस जलाना सर्वथा वर्जित है।

अब यहां सवाल यह उठता है कि जब धार्मिक दृष्टि से एवं वैज्ञानिक दृष्टि से सभी पक्षों से बांस की तीली से बनी अगरबत्ती हमारे लिए सर्वथा वर्जित व हानिप्रद है, तो हम इसे जलाते ही क्यों हैं ? आखिर इसका चलन कैसे हुआ?


      दरअसल भारतवर्ष में धूपबत्ती के स्थान पर अगरबत्ती जलाने का प्रसार, इस्लाम धर्म के आगमन के साथ हुआ माना जाता है।मुस्लिम संप्रदाय के अनुयाई अपनी मजारों, मकबरों, दरगाहों और इबादत में बांस की काठी पर लिपटी हुई मसालों की सुगंधित द्रव्य से मिश्रित अगरबत्तियां जलाते हैं। अपने आगमन के साथ ही उन्होंने भारत वासियों को भी धूपबत्ती के स्थान पर अगरबत्ती जलाने पर जोर दिया, और लोग धूप के स्थान पर अगरबत्ती जलाने लगे।  धीरे-धीरे यह अंधानुकरण अब चलन बन गया और आज अधिकांशतः लोग धूप के स्थान पर अगरबत्ती जलाने लगे हैं।

 अब प्रश्न यह  भी उठता है कि अगर अगरबत्ती ना जलाएं तो क्या जलाएं। तो इसका सबसे सात्विक और सबसे अच्छा विकल्प यह है कि हमें किसी भी तरह के पूजन कार्य में गौ घृत के बने दीपक जलाना सबसे श्रेष्ठ, उत्तम और शुभफलदायी बताया गया हैं।  गाय का घी ना मिलने पर शुद्ध तिल का तेल अथवा सरसों के तेल का दीपक भी जलाया जा सकता है। किंतु यदि आप सुगंध हेतु कुछ जलाना ही चाह रहे हैं तो गाय के गोबर, धूप की छाल, चन्दन, गुगल एवं विभिन्न जड़ी बूटियों और औषधियों से बनी धूपबत्ती को जलाएं। जोकि वायुमंडल में मौजूद सूक्ष्म हानिकारक बैक्टीरिया एवं जीवाणुओं को नष्ट करती है एवं वातावरण को शुद्ध और सकारात्मक ऊर्जा से संपन्न करती है।

 

 



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