अक्सर कहा जाता है कि पूजा के समय सिर का ढका होना जरूरी होता है। स्त्री हो अथवा पुरुष पूजन के समय किसी के सिर खुले नहीं होने चाहिए। प्रत्येक धर्म में इस बात को स्वीकार भी किया जाता है और हम इसका पालन भी करते हैं। पर क्या आपको पता है ऐसा क्यों कहा जाता है इसके पीछे क्या पौराणिक मान्यताएं और क्या वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। चलिए जानते हैं-
एकाग्रता में वृद्धि-
१. पहली मान्यता के अनुसार पूजा करते समय सिर के ढके होने से मन की एकाग्रता में वृद्धि होती है। ऐसा माना जाता है कि किसी भी अनुष्ठान अथवा पूजन क्रम में सिर ढका होता है तो मन की चंचलता कम हो जाती है जिससे पूजन कार्य में व्यक्ति की एकाग्रता बढ़ती है।
ईश्वर के प्रति सम्मान का प्रतीक-
२. पूजा के समय सिर को ढकना ईश्वर को सम्मान देना है जिस तरह से घर के बड़े बुजुर्गों के सामने जाने से पहले महिलाएं अपनी साड़ी का आंचल सिर पर डाल लेती हैं। उसी तरह से हम किसी भी अनुष्ठान अथवा उपासना क्रम में सिर को ढककर जब ईश्वर के सामने प्रस्तुत होते हैं तो इसका तात्पर्य हमारा उनके प्रति सम्मान देना है।
सकारात्मक भावों का होता है विकास-
३. ऐसी मान्यता है कि सिर के खुले होने से नकारात्मक ऊर्जा बालों के माध्यम से हमारे मन मस्तिष्क में प्रवेश करती हैं जो हमारे धार्मिक अनुष्ठान में अवरोध उत्पन्न करती हैं यानी के मन की चंचलता को बढ़ाती हैं। जबकि सिर को ढक कर के रखने से हमारे अंदर सकारात्मकता का भाव आता है।
रंग भी है एक वजह-
४. ईश्वर की उपासना मंदिर दर्शन अथवा धार्मिक अनुष्ठान में काले वस्त्रों का प्रयोग वर्जित बताया गया है क्योंकि काला रंग नकारात्मकता का प्रतीक होता है। अब चूंकि हमारे सिर के बाल भी काले होते हैं जो कि नकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित कर लेते हैं। इसी कारण से भी सिर को ढकना जरूरी बताया गया है।
तरंगे करती हैं आंदोलित-
५. वायुमंडल में विभिन्न तरह की आकाशीय तरंगे अनवरत बहती रहती हैं जिनमें बहुत सी तरंगे नकारात्मकता का भाव रखती हैं। सिर के खुले होने से यह तरंगे हमारे मन मस्तिष्क में प्रवेश करती हैं और हमारे उपासना में व्यवधान उत्पन्न करती हैं।
बालों के ढके होने से बढ़ती है प्रगाढ़ता-
६. पूजा के समय सिर को ढकने से मन की एकाग्रता में वृद्धि होती है। जिससे हमारा खिंचाव उस समय किए जा रहे उपासना क्रम में प्रगाढ़ हो जाता है।
ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है ब्रह्म रान्ध्र-
७. धार्मिक मान्यता के अनुसार सिर के बीच में सहस्रार चक्र होता है जिससे ब्रह्म रान्ध्र के नाम से भी जानते हैं। इस सहस्रार चक्र को मनुष्य के 10 द्वारों में एक माना गया है यानी के दो गुप्तांग, एक मुंह, दो कान, दो नाक, दो आंख और सबसे ऊपर यह दसवां द्वार सहस्रार चक्र होता है। जो ईश्वर प्राप्ति का द्वार बताया गया है। इसीलिए धार्मिक अनुष्ठानों के समय इसे ढक करके रखने का विधान बताया गया है जिससे इसकी सकारात्मकता बनी रहे।
कीटाणु कर जाते हैं प्रवेश-
८. वैज्ञानिक मान्यता यह भी है कि सिर जब खुला होता है तो आकाशीय तरंगे एवं जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ विभिन्न तरह के रोगाणु एवं कीटाणु सिर के बालों से होते हुए हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं। जो मन भावों में परिवर्तन के साथ साथ हमारे शरीर में विभिन्न प्रकार के मौसमी बीमारियों की भी वृद्धि करती हैं। इसीलिए सिर के ऊपर साफा, पगड़ी गमछा रुमाल, पल्लू अथवा दुपट्टा रखना महत्वपूर्ण बताया गया है।
सूतक काल में बालों का मुंडन-
९ प्राय शिशु के जन्म के 1 वर्ष के भीतर बालक का मुंडन कराना इसी बात का संकेत है, की गर्भावस्था के दौरान शिशु के बालों में अपशिष्ट पदार्थ रह गए हैं उन्हें मुंडन करके हटा दिया जाए। परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने पर बालों का बनवाना भी इसी बात का प्रतीक है कि उस व्यक्ति कि बीमारी, मृत्यु, एवं मुखाग्नि के समय उसके शरीर से निकले रोगाणु कीटाणु एवं अपशिष्ट पदार्थ बालों के माध्यम से दूसरे के शरीर में चिपक जाते हैं। जिस हेतु बालों का मुंडन कराना अनिवार्य होता है। प्रस्तुत उदाहरण इस बात का संकेत हैं कि खुले बालों से किस तरह से रोगाणु हमारे शरीर में प्रवेश कर जाती हैं। जिनसे बचने के लिए सिर पर पगड़ी, साफा, पल्लू व रुमाल रखना जरूरी बताया गया है।
प्राचीन काल में राजा महाराजाओं के सिर पर मुकुट, पगड़ी और साफे का होना भी इसी बात का प्रतीक है कि सिर को सदैव ढक करके रखना चाहिए।
सिर कब-कब ढका होना चाहिए-
जब आप पूजा करें, मंदिर जाएं, हवन करें, जाप करें, विवाह के समय, मंदिर अथवा पेड़ की परिक्रमा करते समय इत्यादि धार्मिक अनुष्ठानों में पुरुष अथवा महिला दोनों को अपने सिर अवश्य ढक लेना चाहिए।