देवशयनी एकादशी/वामन भगवान का प्राकट्य

  देवशयनी एकादशी का महत्व-

 एकादशी व्रत का महत्व सभी व्रतों में सबसे श्रेष्ठ और सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। इस व्रत में भगवान श्री हरि विष्णु का व्रत व पूजन किया जाता है। इन्हीं एकादशियों  में एक एकादशी हरी शयन के नाम से जानी जाती है जिसे देवशयनी व असाढ़ी एकादशी के नाम से भी जानते हैं।

   असाढ़ मास में जब सूर्यनारायण कर्क राशि में गोचर कर रहे होते हैं, उस शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली एकादशी देवशयनी एकादशी कहलाती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ हो जाता है। जिसकी अवधि आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर के श्रवण मास, भाद्रपद, अश्वनी और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष देवउठनी एकादशी तक रहती है। इस अवधि में भगवान श्री हरि शयन हेतु पाताल लोक में चले जाते हैं।

    श्री हरि विष्णु के इस चतुर्मास्य शयन के पीछे भगवान विष्णु के पांचवें अवतार की एक बहुत सुंदर घटना है।

   पुराणों के अनुसार त्रेता युग में राजा बलि ने जब अपने शक्ति, सामर्थ्य और बल के दम पर तीनों लोको पर अपना अधिकार कर लिया था तब इंद्रदेव ने भगवान श्री हरि विष्णु से सहायता मांगी और उनसे याचना की कि हे प्रभु इस दैत्य से हमारी रक्षा करें और हमारा राज्य वापस दिलाएं।

    उनकी याचना से द्रवित होकर के लक्ष्मीपति ने बामन का रूप धारण किया और एक याचक बनकर के महाराजा बलि के द्वार पर जा पहुंचे,  राजा बलि दैत्य राजा होने के बाद भी एक उदार और परम दानी राजा था। जैसे ही द्वारपालों से उसे जानकारी मिली कि एक याचक भिक्षा हेतु द्वार पर आया है तो वह अपनी महल के द्वार पर आया और उन बामन याचक से उनकी  कामना पूछी। 

   इस पर ब्राम्हण रूप वामन देव ने कहा महाराज मुझे तीन पग भूमि आपसे दान स्वरूप चाहिए। इस पर राजा बलि ने हंसते हुए कहा इससे तुम्हारा क्या होगा, तुम चाहो तो मैं तुम्हें और भी अधिक भूमि, धन संपदा और अन्न, धन दे सकता हूं, कुछ भी मांग लो। तब उस बौने के रूप में पधारे कमलनयन ने कहा नहीं मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए मात्र तीन पग भूमि की कामना है। इस पर दैत्य राज बलि ने हंसते हुए कहा, ठीक है तुम अपनी इच्छित तीन पग भूमि कहीं से भी नाप लो। मैं तुम्हें वह भूमि देने का वचन देता हूं।

   किंतु यह क्या, दैत्य राज के वचन देते ही वामन रूप लक्ष्मीपति महिमा रूप में आ गए और अपने एक पग से समस्त पृथ्वी को और दूसरे से आकाश को नाप लिया। अब कमलापति अपना तीसरा पग कहां रखते इस पर राजा बलि उनके कदमों में झुक गया और उनसे याचना की कि हे प्रभु आप अपना तीसरा पग मेरे सर पर रख दें। वरना मैं अपने वचनों से झूठा हो जाऊंगा मेरे दिए वचन अधूरे हो जाएंगे। इस पर पुंडरीकाक्ष ने मुस्कुराते हुए अपना तीसरा  पग दैत्य राजबली के सर पर रख दिया।

   राजा बलि के इस वचन शीलता से श्री हरि बहुत प्रसन्न हुए और उनसे वर मांगने को कहा, इस पर महाराजा बलि ने कहा प्रभु मेरे पास जो कुछ भी था वह अब सब आपका हो चुका है यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे साथ चलकर पाताल लोक में निवास करें। भगवान तथास्तु कहकर उसके साथ पाताल चले गये।

   इस तरह से श्री विष्णु ने राजा बलि के आधिपत्य से तीनों लोकों को मुक्त करा लिया और देवताओं को उनका राज्य मिल गया। किंतु सृष्टि संचालक के पाताल चले जाने से जगत के संचालन और पोषण में व्यवधान खड़े होने लगे। तब माता लक्ष्मी ने एक गरीब स्त्री का रूप धारण कर राजा बलि को अपना भाई बनाते हुए उन्हें राखी बांधकर उनसे उपहार स्वरूप श्री हरि को वापस मांग लिया।

    किंतु नारायण अपने भक्त राजा बलि को निराश नहीं करना चाहते थे। इसलिए स्वयंभू ने उन्हें वचन दिया कि हे राजन अब से मैं चातुर्मास्य मै आपके द्वार पर पाताल लोक में ही निवास किया करूंगा। 

   और तब से ही श्री हरि चातुर्मासो में पाताल में निवास करते है। जिस वजह से इन महिनों में कोई भी मांगलिक कार्य जैसे यगोपवित, विवाह, दीक्षा, यज्ञ, गृह प्रवेश, गोदान, देव प्रतिष्ठा,आदि जैसे बहुत सारे मांगलिक कार्य नहीं किए जाते।

भगवान विष्णु ने दिया योगनिद्रा को आशीर्वाद-

इस चातुर्मास्य की एक और कथा भी प्रचलित है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक प्रसंग में योग निद्रा ने कठिन तपस्या कर भगवान विष्णु को प्रसन्न किया और उनसे प्रार्थना की कि हे प्रभु आप मुझे अपने अंगों में स्थान दें। लेकिन श्रीहरि ने देखा कि उनका सारा शरीर तो देवी लक्ष्मी के द्वारा ही अधिष्ठित है इस तरह का विचार कर श्री हरि ने अपने नेत्रों में योग निद्रा को स्थान दे दिया और उसे आश्वासन देते हुए कहा कि तुम वर्ष में 4 मास मेरे आश्रित रहोगी। इस तरह से मायापति के इस शयन को भविष्य पुराण, पद्म पुराण एवं श्रीमद्भागवत के अनुसार योगनिद्रा भी कहा जाता है।

 एकादशी व्रत की पूजन विधि-

     एकादशी तिथि को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हो स्नान करें। तत्पश्चात पूजा स्थल पर भगवान श्री हरि की सुंदर प्रतिमा या शालिग्राम स्थापित करें।

     आचमन और षटकर्म करने के पश्चात लक्ष्मीपति की षोडशोपचार अथवा पंचोपचार विधि से पूजन करें।

     पूर्ण श्रद्धा एवं निष्ठा से भगवान को फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य आदि आपके पास जो भी है वह श्रीहरि को अर्पण करें। विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः अथवा ॐ नमो नारायणाय मंत्र का जप करें। कथा का पाठ करें एवं श्रीहरि की प्रेम भाव से आरती करें।

     इस दिन यदि आप व्रत नहीं कर रहे हैं तो भी अनाज में आपको चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। क्योंकि एकादशी को चावल खाना जीव खाने के पाप जैसा है। इससे जुड़ी एक रोचक कथा भी है।

क्यों नहीं खाते हैं का एकादशी को चावल-

     पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार महर्षि मेघा अपने किसी अपराध वश मां आदि शक्ति से इतना डर गए कि उन्होंने अपना शरीर ही त्याग दिया। त्यागे गए शरीर का अंश पृथ्वी में समाहित हुआ और महर्षि मेधा चावल और जौ के रूप में उत्पन्न हुए इसीलिए चावल और जौ को इस दिन जीव माना जाता है और भोजन में चावल ग्रहण करने से परहेज किया जाता है।

     हरिशयनि एकादशी बहुत ही प्रभावशाली और पुण्यदायी मानी जाती है इसी व्रत के पुण्य प्रभाव से सूर्यवंशी राजा मांधाता ने अपने राज्य में कई वर्षों से व्याप्त अकाल जैसी दुर्भिक्ष को दूर कर प्रजा का पोषण किया था।

     हरिशयन के इन चातुर्मासों में जो व्यक्ति भगवान को दही, दूध, घी, शहद और मिश्री के द्वारा स्नान कराता है वह वैभवशाली होकर सुख भोगता है

     जो मनुष्य इन चातुर्मास्यों में नित्य प्रति तुलसी जी को भगवान को अर्पित करता है उसे विष्णु लोक की प्राप्ति होती है।

     जो मनुष्य इन चातुर्मास्यों में विष्णु मंदिर में जाकर  नित्य 108 बार गायत्री मंत्र का जप करते हैं वह पापों से लिप्त नहीं होते।

     जो मनुष्य इन चातुर्मास्यों में गायत्री मंत्र द्वारा तिल से होम करते हैं और दान करते हैं उन्हें निरोगी काया एवं सुपात्र व संस्कारी संतान प्राप्त होती है।

     तो  फिर प्रेम से बोलिए श्री हरि विष्णु भगवान की जय।।



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