क्यों मनाई जाती है गुरू पूर्णिमा


गुरु की महिमा-

           ईश्वर अगर रूठ जाए तो गुरु उन्हें मनाने में हमारी मदद करते हैं किंतु अगर गुरु रूठ जाए तो ईश्वर भी हमारा मद्दगार नहीं होता। 

   इसीलिए गुरु की महिमा का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। गुरु के अनुग्रह, दया, वरदान और तप के अंश से ही मनुष्य अपना जीवन भवसागर से पार कर ईश्वर का साक्षात्कार और सानिध्य प्राप्त कर सकता है।

    गुरु ना केवल हमें पढ़ना, लिखना, बोलना, चालना, सदाचार एवं सदाचरण का पाठ पढ़ाता है बल्कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चारों वर्णाश्रमो से पार पाने की शक्ति, बल, बुद्धि और साहस भी प्रदान करता है

संस्कृत में गु का अर्थ अंधकार यानी के अज्ञान से है

और रू का तात्पर्य प्रकाश यानी के ज्ञान से है.. 

 अर्थात एक ऐसी सत्ता जो इंसान को अंधकार और अज्ञान से निकालकर प्रकाश और ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करें।

प्रत्येक धर्म जाति एवं संप्रदाय में गुरु का दर्जा सर्वोपरि माना गया है, फिर वह चाहे किसी भी जाति, धर्म एवं संप्रदाय का क्यों ना हो।

  गुरु हमारे जीवन के कई चरणों में कई रूपों में आते हैं जैसे कि प्रथम गुरु के रूप में हम अपने माता-पिता को मान सकते हैं। जो ना केवल इस संसार में हमें लाते हैं, बल्कि हमारा पालन-पोषण और जीवन के तमाम सुख-साधन और ज्ञान उपलब्ध कराने के लिए अपना पूरा जीवन अपनी संतान के लिए होम देते हैं।

 दूसरे गुरु वह होते हैं जो हमें पुस्तकीय ज्ञान देते हैं। हमें पढ़ना लिखना सिखाते हैं और समाज में हमें एक सभ्य और संस्कारी मानव के रूप में विकसित करते हैं।

  तीसरे गुरु के रूप में हम उन्हें मान सकते हैं जो जीवन के निर्वाहन हेतु हमें विभिन्न कार्यों में दक्षता का ज्ञान देते हैं जिससे हम धनार्जन करके अपने परिवार और कुल का पालन पोषण करते हैं।

   जीवन के विभिन्न चरणों में आने वाले यह तीनों गुरु हमारे बौद्धिक क्षमता का विकास करते हैं। किंतु आज हम बात कर रहे हैं, हमारे जीवन के चौथे गुरु की। जो हमारे बौद्धिक क्षमता के साथ-साथ हमारी आत्मिक क्षमता का भी विकास करते हैं। यह गुरु हमें बुराइयों से निकालकर हमें सन्मार्ग, भक्ति, ज्ञान वैराग्य, ईश्वर साक्षात्कार और मुक्ति दिलाने में हमारा सतत मार्गदर्शन करते हैं।

      गुरु के इसी अनुग्रह को याद करते हुए इनके प्रति अपनी श्रद्धा वा आभार व्यक्त करने हेतु, यह गुरु पूर्णिमा मनाई जाती है। जो प्रत्येक वर्ष के आषाढ़ मास की पूर्णिमा को होती है। इसकी शुरुआत लगभग 3000 ईसापूर्व से मानी जा सकती है।  महर्षि वेदव्यास का हुआ था जन्म-


     आज ही के दिन महर्षि पराशर के पुत्र के रूप में जन्में महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था। जिन्होंने वेदों को चार खंडों में विभाजित किया, महाभारत एवं श्रीमद्भागवत सहित 18 पुराण, ब्रह्म सूत्र मीमांसा जैसे कितने अद्वितीय धार्मिक ग्रंथों की रचना की।

    इसके अतिरिक्त आज ही के दिन भगवान बुद्ध ने पहली  बार सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था।

  और योग परंपरा के अनुसार आज ही के दिन सहस्त्र वर्षों एवं कालो पूर्व भगवान शिव ने सप्तर्षियों को योग का ज्ञान दिया था और भगवान शिव सृष्टि के प्रथम गुरु कहलाए।

   अब कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों के संक्षिप्त जीवन दर्शन कर लेते हैं, जो गुरु की कृपा से विश्वविख्यात और ईश्वर के दिव्य विभूतियों से अभिभूत हुए।

 पहली कहानी त्रेता युग के दस्यु रत्नाकर की  है। जिनका कार्य पथिको को लूटना और गलत कार्यों से धनार्जन करना था, किंतु जब नारद जी के रूप में गुरु का साक्षात्कार हुआ तब उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हुआ और वे डाकू से महर्षि वाल्मीकि हो गये। जिनकी आश्रम में माता सीता ने आश्रय लिया और रामायण जैसे महा ग्रंथ के रचनाकार के रूप में जगत पूज्य हुए।

    ऐसी ही एक कथा बुद्ध काल की है जब अंगुलिमाल नामक एक डाकू जो लोगों की उंगलियां काट कर माला पहन लिया करता था उसे भगवान बुध का साक्षात्कार हुआ तो वह अपने सभी गलत कार्यों को छोड़कर एक बौद्ध भिक्षु बनकर समाज की सेवा करने लगा।

     इसी तरह से कायस्थ कुल में जन्मे नरेंद्र को जब एक समर्थ गुरु के रूप में स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस जी मिल जाते हैं तो वह नरेंद्र एक सामान्य मानव ना होकर  स्वामी विवेकानंद हो जाता है जो ना केवल भारत वर्ष में बल्कि समूचे विश्व में आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।

  इसी तरह से अनेकों उदाहरण जैसे रामानंद ने कबीर को, समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी महाराज को, चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को और इस तरह से सहस्त्र गुरुओं ने समय-समय पर अपने शिष्यों का मार्गदर्शन किया है और कर रहे हैं।

गुरु वंदन/गुरु की पूजा-

      इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत हो यदि संभव हो सके तो अपने गुरुकुल या गुरु आश्रम में जाकर गुरु का दर्शन करें पूर्ण श्रद्धा निष्ठा से आपके पास जो भी हो वह उन्हें अर्पण करें। उनका चरण वंदन करें और उनके अनुदान वरदान एवं कृपा हेतु उनका अभिनंदन करें।

  यदि गुरु सा शरीर नहीं है, यानी के गुरु सूक्ष्म रूप में समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त हो गये हैं। तो भी उसी श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ उनके चित्र, मूर्ति, पदचिन्ह या चरण पादुका का धूप दीप नैवेद्य आदि चढ़ाते हुए पूजन करें। अपने जीवन के सतत मार्गदर्शन के लिए उनसे कामना एवं प्रार्थना करें गुरुदेव की अनुकंपा सदैव अपने शिष्य पर बनी रहती है इसमें जरा भी संशय नहीं है। 

     प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन काल में सद्गुरु का वरण जरूर करना चाहिए क्योंकि बिना योग्य सदगुरु के मनुष्य अपने जीवन के इस 84 लाख योनि के चक्र को पार नहीं कर पाता।

   तभी तो कबीर दास जी ने कहा है-

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।

 शीश दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।




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